यक़ीनन ये पहली यात्रा नहीं थी, मगर ख़ूबसूरत थी। मैं हैरान थी कि राजस्थान का ये हिस्सा अब तक अपरिचित कैसे रहा? मैं पहाड़ों के प्रेम में कितनी दूर तक भटकती रही और ये प्रेम सबसे सुंदर रूप में मेरे अपने रेगिस्तान की बगल में ही सुस्ता रहा था! जैसे पेड़ के दूसरी तरफ़ कोई टेक लगाकर बैठा हो और हम पूरा जंगल खोज आयें। अक्टूबर का महीना था जब एक महीने अस्वस्थ रहने के बाद बैग उठाकर चल पड़ने का मन बना। मैं जब तक सफ़र में होती हूँ, किसी से साझा करना पसंद नहीं करती। अक्सर ख़लील जिब्रान की पंक्तियाँ मेरे साथ चलती हैं-
“travel and tell no one, live a true love story and tell no one, live happily and tell no one, People ruin beautiful things.”
लेकिन अब जो सफ़र खत्म हुआ, लिखकर उसे फ़िर से जी लेने को जी चाहता था। ये किसी शहर की बातें नहीं, ये महज़ एक रास्ते की बातें हैं, या यूँ कहूँ कि अब तक सुना था: ‘रास्ते मंजिलों से ख़ूबसूरत हो सकते हैं’; ये उस सुनने से जीने तक की बातें हैं। उदयपुर से कुम्भलगढ़ 85 किलोमीटर दूर है। उदयपुर शहर की ख़ूबसूरती पर मंत्रमुग्ध हुए सैलानी अक्सर कुम्भलगढ़ जाना टाल देते हैं। उदयपुर से कुम्भलगढ़ के लिए कोई रोडवेज बस नहीं जाती, ओला और उबर से भी ना सुनने को मिलता है| अगर किसी तरह रेंटल बाइक से पहुंचा जाए और वहां रुकने का प्लान बनाया जाये तो ऑनलाइन बुकिंग वेबसाइट्स पर दिखते होटल्स की कम संख्या और ज्यादा दाम मनोबल तोड़ देते हैं, कम से कम हम जैसे घुमक्कड़ों का तो ज़रूर जो कम में ज्यादा जीने का मन बनाकर घर से निकले होते हैं। न जाने क्यों मैंने जितने भी लोगों से उदयपुर में कुम्भलगढ़ जाने के बारे में ज़िक्र किया उन्होंने न जाने की सलाह ही दी। एकबारगी तो मुझे भी लगा रहने दूँ, लेकिन फ़िर मैंने एक रेंटल कैब बुक कर ही ली। कैब २२०० में कुम्भलगढ़ और रणकपुर दोनों दिखाकर शाम को वापस उदयपुर छोड़ने वाली थी| अगर कैब शेयर हो जाती तो मुझे मदद मिलती, लेकिन यहाँ मैं बदकिस्मत रही या शायद ख़ुशकिस्मत। उदयपुर के जिस हॉस्टल में मैं रुकी थी, वहाँ ज़्यादातर विदेशी रुके हुए थे। हॉस्टल में रुकना भी एक अलग ही अनुभव था। अपने जैसे, नहीं अपने जैसे नहीं, अपने आप से कहीं बड़े घुमक्कड़ मिले वहाँ! कोई छः महीने से भारत में ही घूम रहा था तो किसी को दुनिया घूमते हुए तीन साल बीतने को थे। उनके पास न जाने कितनी कहानियाँ थीं, न जाने कितने क़िस्से! लेकिन इस पूरी यात्रा में से एक ग़म मुझे सताता है, वो है अपना अन्तर्मुखी होना। मैं अज़नबियों को देखकर उनकी कहानियाँ अपने मन में सोचने लगती हूँ, सोचती हूँ क्या इसके घर में कोई इसका इंतज़ार कर रहा होगा? क्या इसने कभी किसी से प्यार किया होगा? क्या ये एक स्वार्थी इंसान होगा? इसके ख़ूब सारे दोस्त होंगे या मेरी तरह बहुत थोड़े से! और भी न जाने कितनी बातें, लेकिन सिर्फ़ अपने मन में! मैं उनसे ज़्यादा बातचीत नहीं कर पाती। ख़ैर वो एक अलग कहानी है। यहाँ क़िस्सा कुम्भलगढ़ का है। मैंने हॉस्टल के रिसेप्शन पर पता किया था, उनसे कह भी दिया था कि अगर कोई जाना चाहे तो मेरे साथ चल सकता है। पर अगली सुबह पता चला पूरे हॉस्टल से कोई नहीं जा रहा। सुनकर एक पल मैं सोच में पड़ी, अगले ही पल मुस्कुराई और अकेले ही चल पड़ी ये सोचती हुई कि शायद हर जगह, हर किसी का जाना मुमकिन नहीं होता। हम यात्राओं को नहीं, यात्राएँ हमें चुनती हैं।
कैब के ड्राईवर अधेड़ उम्र के सज्जन थे। उनका नाम मुझे याद नहीं, सिर्फ़ ये याद है कि बड़े खुशमिजाज़ थे, थोड़े बातूनी भी! उदयपुर से निकल कुछ ही किलोमीटर चलने पर ऊँचे ऊँचे पहाड़, और निर्मल सी हरियाली बाँहें फैलाए खड़ी थी। राजस्थान के इस निचले हिस्से से अरावली पर्वतमाला गुजरती है, यहीं दूसरी तरफ़ अरावली की सबसे ऊँची चोटी गुरुशिखर मौज़ूद है। इन्हीं पहाड़ों के कारण बादल जमकर बरसते हैं। लेकिन यहाँ की वनस्पति हिमाचल या उत्तराखंड से अलग है। यहाँ पहाड़ों पर भी नन्हें पीले फूलों से लदे कीकर नज़र आते हैं। सड़कें न ज्यादा संकरी हैं, न घुमावदार!
कैब के ड्राईवर ने बताया था कि उदयपुर में बहुत पहले हवाई अड्डा बन गया था, शहर तो सुंदर था ही, परिवहन भी आसान हो गया था। शायद यही कारण रहा कि यहाँ कई सुप्रसिद्ध फ़िल्मों की शूटिंग हुई है। मैंने फ़िल्में बहुत कम देखीं हैं, कैब ड्राईवर ने जितनी फ़िल्में बताईं उनमें से ज्यादातर मैंने नहीं देखीं थीं। उन्होंने बताया था कि यही पहाड़ियाँ सर्दी आते ही अपना हरा रंग खो देती हैं, हर तरफ पीलापन छा जाता है। उसी सीजन में यहाँ एक फ़िल्म की शूटिंग हुई थी और फ़िल्म में इस जगह को अफ़गानिस्तान बताया गया था।
मौसम सुहाना था, हवा थोड़ी तेज़! जब भी कोई तालाब, कोई नदी, या झरना आता कैब रूकती और मैं कुछ पल उसके किनारे जाकर खड़ी हो जाती। एक नज़र हर तरफ़ देखती, तस्वीरें लेने की बजाय उस अनुपम सौन्दर्य को अपने भीतर उतार लेने की कोशिश करती। बहुत से गाँव गुजर चुके थे, हम ज्यों ज्यों आगे बढ़ रहे थे प्रकृति अपने और सुंदर, एकदम अनछुए रूप में मिल रही थी। कितना सुंदर था वो झरना जिसे देखकर मैं दूर से ही चहक उठी थी। कैब रुकी तो मैं दौड़कर उसके पास चली गयी। जाने कितनी ही देर बस हैरान सी खड़ी उसे देखती रही। मैंने उसकी भी कोई तस्वीर नहीं ली। थोड़ी दूर चलकर जब मैं एक तालाब किनारे बैठी मुझे अपनी ही आवाज़ सुनाई पड़ी थी, ये कहती हुई कि देखो दुनिया कितनी ख़ूबसूरत है, और कितनी बड़ी भी! तुम अब तक कितनी छोटी सी दुनिया में रहती आई! और तो और उसे मुक़म्मल समझती आई! छोटी छोटी बातों पर परेशान होती रही, एक मुस्कुराहट के लिए न जाने किस किस पर निर्भर करती रही। देख रही हो इन झरनों को, इन नदियों को; ये तब भी बहते हैं जब कोई निहारने नहीं आता। तुम इतने साल नहीं आई, पर ये यहीं थे और यक़ीन मानो तुम्हारा इंतज़ार भी नहीं कर रहे थे। ये कभी किसी की राह नहीं ताकते, तुम भी छोड़ दो! अपनी मुस्कुराहट, अपने आँसू ख़ुद तय करना सीखो, याद रखो दुनिया बहुत बड़ी है, तुम्हारी कल्पना से कहीं ज़्यादा बड़ी और बहुत सुंदर भी!
थोड़ी दूर रूककर अपने प्रिय को निहारना सुखद होता है, उसे बिना बताये प्रतीक्षा की उस चुप्पी में डूबा उसका चेहरा निहारते रहना! ये सब बातें शायद किसी प्रेम कहानी का हिस्सा होतीं तो बेहतर होता। मेरा इन्हें किसी यात्रा वृतांत में लिखना अज़ीब तो है, मगर मैं कहूँगी, मेरे लिए नहीं! मेरे लिए प्रेम और यात्राएँ दोनों एक जैसे हैं; ख़त्म होने के बाद भी बचे रहना दोनों की ही ख़ासियत है।
कुम्भलगढ़ की दीवार चीन के बाद विश्व की सबसे लम्बी दीवार है। ख़ूबसूरत है पहाड़ियों के बीच बना ये किला, पहाड़ियों को चीरकर गुजरती हुई ये दीवार! कहीं कहीं तो इसे छूते बादलों को देख लगता है वो ज़रुर कोई सफ़ेद रंग का पंछी होगा, शायद कोई बगुला! जो लम्बी उड़ान से थककर सुस्ताने बैठ गया है। इससे भी ख़ूबसूरत रहा दूर उस बिंदु से इस पूरे दृश्य को निहारना! ड्राईवर ने मुझे उस व्यू पॉइंट पर ले जाकर छोड़ा था। वहाँ पहले से कुछ लोग थे, शायद किसी कॉलेज के स्टूडेंट रहे होंगे। यूँ तो मेरे हमउम्र थे, मगर मैंने ख़ुद को उनसे कोसों दूर पाया। मैं अक्सर अपनी उम्र के लोगों को, उनके सोचने समझने को तरीकों को ख़ुद से जुदा पाती हूँ। उनके शोर के कारण मैं ज्यादा देर उस जगह नहीं रुक सकी।
कुम्भलगढ़ के बाहर टिकट काउंटर के आसपास सामान्य सी भीड़ थी, पार्किंग में भी कोई बहुत ज्यादा वाहन नहीं थे। मैं टिकट लेकर भीतर पहुँच गई। वो सज्जन जो कैब से मुझे यहाँ तक लेकर आये थे, उनकी मैं एक और बार आभारी हो गई थी। दरअसल उदयपुर से निकलते वक्त मैं एटीएम से कैश लेना भूल गयी थी। बहुत दूर आने के बाद जब याद आया तब आसपास कोई एटीएम नहीं था। मैंने परेशान होते हुए उनसे कहा तो वो न सिर्फ़ हँसकर ये बोले कि कोई बात नहीं! बल्कि अपने बटुए से निकालकर कुछ पैसे भी मेरी तरफ बढ़ा दिए, कहा वापिस पहुंचकर आराम से लौटा दूँ। उन्हीं के दिए पैसों से मैं लंच कर पाई और ये टिकट खरीद पाई। यूँ अजनबियों से मिली छोटी छोटी मदद यात्राओं को न सिर्फ़ आसान बनाती है, हमें याद भी दिलाती है कि दुनिया में आज भी उदारता बची हुई है। ज़रूरत है तो बस अपने घर से, अपने कम्फर्ट जोन से बाहर निकलकर उसे खोजने की।
किले के मुख्य द्वार से आगे का रास्ता रास्ता काफ़ी चढ़ाई वाला था। किसी स्कूल से पिकनिक के लिए आये बच्चों का झुण्ड जाने किस बात पर खिलखिलाकर हंस रहा था, मैं भी बिना उनकी बात जाने मुस्कुरा दी। चंद बेसबब सी मुस्कुराहटों के सिवा ज़िन्दगी और है ही क्या!
बादल महल समेत अन्य महलों को से होती हुई मैं आगे बढ़ रही थी। महाराणा कुम्भा के बनाये इस अजेय किले में कुल 360 मंदिर हैं, जिनमें से 300 जैन मंदिर हैं और बाकी हिन्दू। ये किला मारवाड़ और मेवाड़ की सीमा पर है। कहा जाता है मारवाड़ में उड़ती धूल यहाँ से देखी जा सकती है। बड़े बड़े दरवाजे, बेहतरीन नक्काशी वाले किवाड़, सुंदर छज्जे और आसपास की ये पहाड़ियाँ; एक महीन सी सफ़ेद चादर में लिपटी हुई। छज्जों पर बैठे पक्षी उड़ते तो नज़रें दूर तक उनका पीछा करतीं, फ़िर ठहर जातीं धुंधली सी दिखती सड़क पर, दूर दिखते किसी अजनबी गाँव पर! न जाने कौनसे महल की छत पर खड़े हुए मुझे अचानक ही विनोद कुमार शुक्ल की क़िताब ‘दीवार में एक खिड़की रहती थी’ के पात्रों के संवाद याद आये थे। वो अंश याद आया था जिसमें उनके उकेरे दो पात्र नीलकंठ खोजते हैं, ताकि उसे देख सकें, और सोचते हैं कि जब नीलकंठ ये जान लेगा कि उन्होंने उसे देख लिया, वो उड़ जाएगा। मुझे लगा मैं भी कोई नीलकंठ खोज रही थी… शायद अपने भीतर; सपनों का, इच्छाओं का नीलकंठ! ‘खोजना’ यात्राओं का दूसरा नाम है।
किले को पूरा देखने में तक़रीबन डेढ़ घंटे का वक्त लगा। वापस बाहर आते वक्त कहीं न कहीं मुझे ये बात भी खटकी कि कुम्भलगढ़ को न जाने क्यों उतनी तवज्जो नहीं मिल रही है जितनी उदयपुर के सिटी पैलेस को या विश्व धरोहर सूची में शामिल अन्य किलों को! जबकि मिलनी चाहिए, थोड़ी सी मरम्मत, थोड़ा सा रखरखाव इसे आने वाली कई पीढ़ियों के लिए बचाए रख सकता है।
यहाँ से रणकपुर के जैन मंदिरों तक एक सीधा रास्ता जाता है, जिससे ट्रैकिंग करते हुए पहुँच सकते हैं। मगर समयाभाव के कारण मैं ये रास्ता नहीं चुन सकती थी। मुझे शाम तक वापिस उदयपुर लौटना था। काश! मैं यहाँ रुक पाती। उन सज्जन ने बताया कि यहाँ रुकना इतना भी मुश्किल नहीं। अगर मैं ऑनलाइन वेबसाइट्स की बजाय सीधे किसी होटल के रिसेप्शन पर ही पता करूं तो सस्ते में कमरा मिल सकता है, अक्सर यहाँ के गिने चुने होटल भी ख़ाली ही रहते हैं। लेकिन अभी तो उसके लिए भी बहुत देर हो चुकी थी, और हम कुम्भलगढ़ से रणकपुर के लिए निकल चुके थे।
यात्रा ज़ारी रहेगी…